प्राचीन इतिहास
भारत का इतिहास और संस्कृति गतिशील है और यह मानव सभ्यता की शुरूआत तक जाती है। यह सिंधु घाटी की रहस्यमयी संस्कृति से शुरू होती है और भारत के दक्षिणी इलाकों में किसान समुदाय तक जाती है। भारत के इतिहास में भारत के आस पास स्थित अनेक संस्कृतियों से लोगों का निरंतर समेकन होता रहा है। उपलब्ध साक्ष्य सुझाते हैं कि लोहे, तांबे और अन्य धातुओं के उपयोग काफी शुरूआती समय में भी भारतीय उप महाद्वीप में प्रचलित थे, जो दुनिया के इस हिस्से द्वारा की गई प्रगति का संकेत है। चौंथी सहस्राब्दि बी. सी. के अंत तक भारत एक अत्यंत विकसित सभ्यता के क्षेत्र के रूप में उभर चुका था।
भारत का इतिहास और संस्कृति गतिशील है और यह मानव सभ्यता की शुरूआत तक जाती है। यह सिंधु घाटी की रहस्यमयी संस्कृति से शुरू होती है और भारत के दक्षिणी इलाकों में किसान समुदाय तक जाती है। भारत के इतिहास में भारत के आस पास स्थित अनेक संस्कृतियों से लोगों का निरंतर समेकन होता रहा है। उपलब्ध साक्ष्य सुझाते हैं कि लोहे, तांबे और अन्य धातुओं के उपयोग काफी शुरूआती समय में भी भारतीय उप महाद्वीप में प्रचलित थे, जो दुनिया के इस हिस्से द्वारा की गई प्रगति का संकेत है। चौंथी सहस्राब्दि बी. सी. के अंत तक भारत एक अत्यंत विकसित सभ्यता के क्षेत्र के रूप में उभर चुका था।
सिंधु घाटी की सभ्यता
भारत का इतिहास सिंधु घाटी की सभ्यता के जन्म के साथ आरंभ हुआ, और अधिक बारीकी से कहा जाए तो हड़प्पा सभ्यता के समय इसकी शुरूआत मानी जाती है। यह दक्षिण एशिया के पश्चिमी हिस्से में लगभग 2500 बीसी में फली फूली, जिसे आज पाकिस्तान और पश्चिमी भारत कहा जाता है। सिंधु घाटी मिश्र, मेसोपोटामिया, भारत और चीन की चार प्राचीन शहरी सबसे बड़ी सभ्यताओं का घर थी। इस सभ्यता के बारे में 1920 तक कुछ भी ज्ञात नहीं था, जब भारतीय पुरातात्विक विभाग ने सिंधु घाटी की खुदाई का कार्य आरंभ किया, जिसमें दो पुराने शहरों अर्थात मोहन जोदाड़ो और हड़प्पा के भग्नावशेष निकल कर आए। भवनों के टूटे हुए हिस्से और अन्य वस्तुएं जैसे कि घरेलू सामान, युद्ध के हथियार, सोने और चांदी के आभूषण, मुहर, खिलौने, बर्तन आदि दर्शाते हैं कि इस क्षेत्र में लगभग पांच हजार साल पहले एक अत्यंत उच्च विकसित सभ्यता फली फूली।
सिंधु घाटी की सभ्यता मूलत: एक शहरी सभ्यता थी और यहां रहने वाले लोग एक सुयोजनाबद्ध और सुनिर्मित कस्बों में रहा करते थे, जो व्यापार के केन्द्र भी थे। मोहन जोदाड़ो और हड़प्पा के भग्नावशेष दर्शाते हैं कि ये भव्य व्यापारिक शहर वैज्ञानिक दृष्टि से बनाए गए थे और इनकी देखभाल अच्छी तरह की जाती थी। यहां चौड़ी सड़कें और एक सुविकसित निकास प्रणाली थी। घर पकाई गई ईंटों से बने होते थे और इनमें दो या दो से अधिक मंजिलें होती थी।
उच्च विकसित सभ्यता हड़प्पा में अनाज, गेहूं और जौ उगाने की कला ज्ञात थी, जिससे वे अपना मोटा भोजन तैयार करते थे। उन्होंने सब्जियों और फल तथा मांस, सुअर और अण्डे का सेवन भी किया। साक्ष्य सुझाव देते हैं कि ये ऊनी तथा सूती कपड़े पहनते थे। वर्ष 1500 से बी सी तक हड़प्पन सभ्यता का अंत हो गया। सिंधु घाटी की सभ्यता के नष्ट हो जाने के प्रति प्रचलित अनेक कारणों में शामिल है, लगातार बाढ़ और अन्य प्राकृतिक विपदाओं का आना जैसे कि भूकंप आदि।
भारत का इतिहास सिंधु घाटी की सभ्यता के जन्म के साथ आरंभ हुआ, और अधिक बारीकी से कहा जाए तो हड़प्पा सभ्यता के समय इसकी शुरूआत मानी जाती है। यह दक्षिण एशिया के पश्चिमी हिस्से में लगभग 2500 बीसी में फली फूली, जिसे आज पाकिस्तान और पश्चिमी भारत कहा जाता है। सिंधु घाटी मिश्र, मेसोपोटामिया, भारत और चीन की चार प्राचीन शहरी सबसे बड़ी सभ्यताओं का घर थी। इस सभ्यता के बारे में 1920 तक कुछ भी ज्ञात नहीं था, जब भारतीय पुरातात्विक विभाग ने सिंधु घाटी की खुदाई का कार्य आरंभ किया, जिसमें दो पुराने शहरों अर्थात मोहन जोदाड़ो और हड़प्पा के भग्नावशेष निकल कर आए। भवनों के टूटे हुए हिस्से और अन्य वस्तुएं जैसे कि घरेलू सामान, युद्ध के हथियार, सोने और चांदी के आभूषण, मुहर, खिलौने, बर्तन आदि दर्शाते हैं कि इस क्षेत्र में लगभग पांच हजार साल पहले एक अत्यंत उच्च विकसित सभ्यता फली फूली।
सिंधु घाटी की सभ्यता मूलत: एक शहरी सभ्यता थी और यहां रहने वाले लोग एक सुयोजनाबद्ध और सुनिर्मित कस्बों में रहा करते थे, जो व्यापार के केन्द्र भी थे। मोहन जोदाड़ो और हड़प्पा के भग्नावशेष दर्शाते हैं कि ये भव्य व्यापारिक शहर वैज्ञानिक दृष्टि से बनाए गए थे और इनकी देखभाल अच्छी तरह की जाती थी। यहां चौड़ी सड़कें और एक सुविकसित निकास प्रणाली थी। घर पकाई गई ईंटों से बने होते थे और इनमें दो या दो से अधिक मंजिलें होती थी।
उच्च विकसित सभ्यता हड़प्पा में अनाज, गेहूं और जौ उगाने की कला ज्ञात थी, जिससे वे अपना मोटा भोजन तैयार करते थे। उन्होंने सब्जियों और फल तथा मांस, सुअर और अण्डे का सेवन भी किया। साक्ष्य सुझाव देते हैं कि ये ऊनी तथा सूती कपड़े पहनते थे। वर्ष 1500 से बी सी तक हड़प्पन सभ्यता का अंत हो गया। सिंधु घाटी की सभ्यता के नष्ट हो जाने के प्रति प्रचलित अनेक कारणों में शामिल है, लगातार बाढ़ और अन्य प्राकृतिक विपदाओं का आना जैसे कि भूकंप आदि।
वैदिक सभ्यता
प्राचीन भारत के इतिहास में वैदिक सभ्यता सबसे प्रारंभिक सभ्यता है। इसका नामकरण हिन्दुओं के प्रारम्भिक साहित्य वेदों के नाम पर किया गया है। वैदिक सभ्यता सरस्वती नदी के किनारे के क्षेत्र जिसमें आधुनिक भारत के पंजाब और हरियाणा राज्य आते हैं, में विकसित हुई। वैदिक हिन्दुओं का पर्यायवाची है, यह वेदों से निकले धार्मिक और आध्यात्मिक विचारों का दूसरा नाम है।
इस अवधि के दो महान ग्रंथ रामायण और महाभारत थे।
प्राचीन भारत के इतिहास में वैदिक सभ्यता सबसे प्रारंभिक सभ्यता है। इसका नामकरण हिन्दुओं के प्रारम्भिक साहित्य वेदों के नाम पर किया गया है। वैदिक सभ्यता सरस्वती नदी के किनारे के क्षेत्र जिसमें आधुनिक भारत के पंजाब और हरियाणा राज्य आते हैं, में विकसित हुई। वैदिक हिन्दुओं का पर्यायवाची है, यह वेदों से निकले धार्मिक और आध्यात्मिक विचारों का दूसरा नाम है।
इस अवधि के दो महान ग्रंथ रामायण और महाभारत थे।
बौद्ध युग
भगवान गौतम बुद्ध के जीवनकाल में, ईसा पूर्व 7 वीं और शुरूआती 6 वीं शताब्दि के दौरान सोलह बड़ी शक्तियां (महाजनपद) विद्यमान थे। अति महत्वपूर्ण गणराज्यों में कपिलवस्तु के शाक्य और वैशाली के लिच्छवी गणराज्य थे। गणराज्यों के अलावा राजतंत्रीय राज्य भी थे, जिनमें से कौशाम्बी (वत्स), मगध, कोशल, और अवन्ति महत्वपूर्ण थे। इन राज्यों का शासन ऐसे शक्तिशाली व्यक्तियों के पास था, जिन्होंने राज्य विस्तार और पड़ोसी राज्यों को अपने में मिलाने की नीति अपना रखी थी। तथापि गणराज्यात्मक राज्यों के तब भी स्पष्ट संकेत थे जब राजाओं के अधीन राज्यों का विस्तार हो रहा था।
बुद्ध का जन्म ईसा पूर्व 560 में हुआ और उनका देहान्त ईसा पूर्व 480 में 80 वर्ष की आयु में हुआ। उनका जन्म स्थान नेपाल में हिमालय पर्वत श्रंखला के पलपा गिरि की तलहटी में बसे कपिलवस्तु नगर का लुम्बिनी नामक निकुंज था। बुद्ध, जिनका वास्तविक नाम सिद्धार्थ गौतम था, ने बुद्ध धर्म की स्थापना की जो पूर्वी एशिया के अधिकांश हिस्सों में एक महान संस्कृति के रूप में विकसित हुआ।
भगवान गौतम बुद्ध के जीवनकाल में, ईसा पूर्व 7 वीं और शुरूआती 6 वीं शताब्दि के दौरान सोलह बड़ी शक्तियां (महाजनपद) विद्यमान थे। अति महत्वपूर्ण गणराज्यों में कपिलवस्तु के शाक्य और वैशाली के लिच्छवी गणराज्य थे। गणराज्यों के अलावा राजतंत्रीय राज्य भी थे, जिनमें से कौशाम्बी (वत्स), मगध, कोशल, और अवन्ति महत्वपूर्ण थे। इन राज्यों का शासन ऐसे शक्तिशाली व्यक्तियों के पास था, जिन्होंने राज्य विस्तार और पड़ोसी राज्यों को अपने में मिलाने की नीति अपना रखी थी। तथापि गणराज्यात्मक राज्यों के तब भी स्पष्ट संकेत थे जब राजाओं के अधीन राज्यों का विस्तार हो रहा था।
बुद्ध का जन्म ईसा पूर्व 560 में हुआ और उनका देहान्त ईसा पूर्व 480 में 80 वर्ष की आयु में हुआ। उनका जन्म स्थान नेपाल में हिमालय पर्वत श्रंखला के पलपा गिरि की तलहटी में बसे कपिलवस्तु नगर का लुम्बिनी नामक निकुंज था। बुद्ध, जिनका वास्तविक नाम सिद्धार्थ गौतम था, ने बुद्ध धर्म की स्थापना की जो पूर्वी एशिया के अधिकांश हिस्सों में एक महान संस्कृति के रूप में विकसित हुआ।
सिकंदर का आक्रमण
ईसा पूर्व 326 में सिकंदर सिंधु नदी को पार करके तक्षशिला की ओर बढ़ा व भारत पर आक्रमण किया। तब उसने झेलम व चिनाब नदियों के मध्य अवस्थ्ति राज्य के राजा पौरस को चुनौती दी। यद्यपि भारतीयों ने हाथियों, जिन्हें मेसीडोनिया वासियों ने पहले कभी नहीं देखा था, को साथ लेकर युद्ध किया, परन्तु भयंकर युद्ध के बाद भारतीय हार गए। सिकंदर ने पौरस को गिरफ्तार कर लिया, तथा जैसे उसने अन्य स्थानीय राजाओं को परास्त किया था, की भांति उसे अपने क्षेत्र पर राज्य करने की अनुमति दे दी।
दक्षिण में हैडासयस व सिंधु नदियों की ओर अपनी यात्रा के दौरान, सिकंदर ने दार्शनिकों, ब्राह्मणों, जो कि अपनी बुद्धिमानी के लिए प्रसिद्ध थे, की तलाश की और उनसे दार्शनिक मुद्दों पर बहस की। वह अपनी बुद्धिमतापूर्ण चतुराई व निर्भय विजेता के रूप में सदियों तक भारत में किवदंती बना रहा।
उग्र भारतीय लड़ाके कबीलों में से एक मालियों के गांव में सिकन्दर की सेना एकत्रित हुई। इस हमले में सिकन्दर कई बार जख्मी हुआ। जब एक तीर उसके सीने के कवच को पार करते हुए उसकी पसलियों में जा घुसा, तब वह बहुत गंभीर रूप से जख्मी हुआ। मेसेडोनियन अधिकारियों ने उसे बड़ी मुश्किल से बचाकर गांव से निकाला।
सिकन्दर व उसकी सेना जुलाई 325 ईसा पूर्व में सिंधु नदी के मुहाने पर पहुंची, तथा घर की ओर जाने के लिए पश्चिम की ओर मुड़ी।
ईसा पूर्व 326 में सिकंदर सिंधु नदी को पार करके तक्षशिला की ओर बढ़ा व भारत पर आक्रमण किया। तब उसने झेलम व चिनाब नदियों के मध्य अवस्थ्ति राज्य के राजा पौरस को चुनौती दी। यद्यपि भारतीयों ने हाथियों, जिन्हें मेसीडोनिया वासियों ने पहले कभी नहीं देखा था, को साथ लेकर युद्ध किया, परन्तु भयंकर युद्ध के बाद भारतीय हार गए। सिकंदर ने पौरस को गिरफ्तार कर लिया, तथा जैसे उसने अन्य स्थानीय राजाओं को परास्त किया था, की भांति उसे अपने क्षेत्र पर राज्य करने की अनुमति दे दी।
दक्षिण में हैडासयस व सिंधु नदियों की ओर अपनी यात्रा के दौरान, सिकंदर ने दार्शनिकों, ब्राह्मणों, जो कि अपनी बुद्धिमानी के लिए प्रसिद्ध थे, की तलाश की और उनसे दार्शनिक मुद्दों पर बहस की। वह अपनी बुद्धिमतापूर्ण चतुराई व निर्भय विजेता के रूप में सदियों तक भारत में किवदंती बना रहा।
उग्र भारतीय लड़ाके कबीलों में से एक मालियों के गांव में सिकन्दर की सेना एकत्रित हुई। इस हमले में सिकन्दर कई बार जख्मी हुआ। जब एक तीर उसके सीने के कवच को पार करते हुए उसकी पसलियों में जा घुसा, तब वह बहुत गंभीर रूप से जख्मी हुआ। मेसेडोनियन अधिकारियों ने उसे बड़ी मुश्किल से बचाकर गांव से निकाला।
सिकन्दर व उसकी सेना जुलाई 325 ईसा पूर्व में सिंधु नदी के मुहाने पर पहुंची, तथा घर की ओर जाने के लिए पश्चिम की ओर मुड़ी।
मौर्य साम्राज्य
मौर्य साम्राज्य की अवधि (ईसा पूर्व 322 से ईसा पूर्व 185 तक) ने भारतीय इतिहास में एक युग का सूत्रपात किया। कहा जाता है कि यह वह अवधि थी जब कालक्रम स्पष्ट हुआ। यह वह समय था जब, राजनीति, कला, और वाणिज्य ने भारत को एक स्वर्णिम ऊंचाई पर पहुंचा दिया। यह खंडों में विभाजित राज्यों के एकीकरण का समय था। इससे भी आगे इस अवधि के दौरान बाहरी दुनिया के साथ प्रभावशाली ढंग से भारत के संपर्क स्थापित हुए।
सिकन्दर की मृत्यु के बाद उत्पन्न भ्रम की स्थिति ने राज्यों को यूनानियों की दासता से मुक्त कराने और इस प्रकार पंजाब व सिंध प्रांतों पर कब्जा करने का चन्द्रगुप्त को अवसर प्रदान किया। उसने बाद में कौटिल्य की सहायता से मगध में नन्द के राज्य को समाप्त कर दिया और ईसा पूर्व और 322 में प्रतापी मौर्य राज्य की स्थापना की। चन्द्रगुप्त जिसने 324 से 301 ईसा पूर्व तक शासन किया, ने मुक्तिदाता की उपाधि प्राप्त की व भारत के पहले सम्राट की उपाधि प्राप्त की।
वृद्धावस्था आने पर चन्द्रगुप्त की रुचि धर्म की ओर हुई तथा ईसा पूर्व 301 में उसने अपनी गद्दी अपने पुत्र बिंदुसार के लिए छोड़ दी। अपने 28 वर्ष के शासनकाल में बिंदुसार ने दक्षिण के ऊचांई वाले क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की तथा 273 ईसा पूर्व में अपनी राजगद्दी अपने पुत्र अशोक को सौंप दी। अशोक न केवल मौर्य साम्राज्य का अत्यधिक प्रसिद्ध सम्राट हुआ, परन्तु उसे भारत व विश्व के महानतम सम्राटों में से एक माना जाता है।
उसका साम्राज्य हिन्दु कुश से बंगाल तक के पूर्वी भूभाग में फैला हुआ था व अफगानिस्तान, बलूचिस्तान व पूरे भारत में फैला हुआ था, केवल सुदूर दक्षिण का कुछ क्षेत्र छूटा था। नेपाल की घाटी व कश्मीर भी उसके साम्राज्य में शामिल थे।
अशोक के साम्राज्य की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी कलिंग विजय (आधुनिक ओडिशा), जो उसके जीवन में महत्वपूर्ण बदलाव लाने वाली साबित हुई। कलिंग युद्ध में भयानक नरसंहार व विनाश हुआ। युद्ध भूमि के कष्टों व अत्याचारों ने अशोक के हृदय को विदीर्ण कर दिया। उसने भविष्य में और कोई युद्ध न करने का प्रण कर लिया। उसने सांसरिक विजय के अत्याचारों तथा सदाचार व आध्यात्मिकता की सफलता को समझा। वह बुद्ध के उपदेशों के प्रति आकर्षित हुआ तथा उसने अपने जीवन को, मनुष्य के हृदय को कर्तव्य परायणता व धर्म परायणता से जीतने में लगा दिया।
मौर्य साम्राज्य की अवधि (ईसा पूर्व 322 से ईसा पूर्व 185 तक) ने भारतीय इतिहास में एक युग का सूत्रपात किया। कहा जाता है कि यह वह अवधि थी जब कालक्रम स्पष्ट हुआ। यह वह समय था जब, राजनीति, कला, और वाणिज्य ने भारत को एक स्वर्णिम ऊंचाई पर पहुंचा दिया। यह खंडों में विभाजित राज्यों के एकीकरण का समय था। इससे भी आगे इस अवधि के दौरान बाहरी दुनिया के साथ प्रभावशाली ढंग से भारत के संपर्क स्थापित हुए।
सिकन्दर की मृत्यु के बाद उत्पन्न भ्रम की स्थिति ने राज्यों को यूनानियों की दासता से मुक्त कराने और इस प्रकार पंजाब व सिंध प्रांतों पर कब्जा करने का चन्द्रगुप्त को अवसर प्रदान किया। उसने बाद में कौटिल्य की सहायता से मगध में नन्द के राज्य को समाप्त कर दिया और ईसा पूर्व और 322 में प्रतापी मौर्य राज्य की स्थापना की। चन्द्रगुप्त जिसने 324 से 301 ईसा पूर्व तक शासन किया, ने मुक्तिदाता की उपाधि प्राप्त की व भारत के पहले सम्राट की उपाधि प्राप्त की।
वृद्धावस्था आने पर चन्द्रगुप्त की रुचि धर्म की ओर हुई तथा ईसा पूर्व 301 में उसने अपनी गद्दी अपने पुत्र बिंदुसार के लिए छोड़ दी। अपने 28 वर्ष के शासनकाल में बिंदुसार ने दक्षिण के ऊचांई वाले क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की तथा 273 ईसा पूर्व में अपनी राजगद्दी अपने पुत्र अशोक को सौंप दी। अशोक न केवल मौर्य साम्राज्य का अत्यधिक प्रसिद्ध सम्राट हुआ, परन्तु उसे भारत व विश्व के महानतम सम्राटों में से एक माना जाता है।
उसका साम्राज्य हिन्दु कुश से बंगाल तक के पूर्वी भूभाग में फैला हुआ था व अफगानिस्तान, बलूचिस्तान व पूरे भारत में फैला हुआ था, केवल सुदूर दक्षिण का कुछ क्षेत्र छूटा था। नेपाल की घाटी व कश्मीर भी उसके साम्राज्य में शामिल थे।
अशोक के साम्राज्य की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी कलिंग विजय (आधुनिक ओडिशा), जो उसके जीवन में महत्वपूर्ण बदलाव लाने वाली साबित हुई। कलिंग युद्ध में भयानक नरसंहार व विनाश हुआ। युद्ध भूमि के कष्टों व अत्याचारों ने अशोक के हृदय को विदीर्ण कर दिया। उसने भविष्य में और कोई युद्ध न करने का प्रण कर लिया। उसने सांसरिक विजय के अत्याचारों तथा सदाचार व आध्यात्मिकता की सफलता को समझा। वह बुद्ध के उपदेशों के प्रति आकर्षित हुआ तथा उसने अपने जीवन को, मनुष्य के हृदय को कर्तव्य परायणता व धर्म परायणता से जीतने में लगा दिया।
मौर्य साम्राज्य का अंत
अशोक के उत्तराधिकारी कमज़ोर शासक हुए, जिससे प्रान्तों को अपनी स्वतंत्रता का दावा करने का साहस हुआ। इतने बड़े साम्राज्य का प्रशासन चलाने के कठिन कार्य का संपादन कमज़ोर शासकों द्वारा नहीं हो सका। उत्तराधिकारियों के बीच आपसी लड़ाइयों ने भी मौर्य साम्राज्य के अवनति में योगदान किया।
ईसवी सन् की प्रथम शताब्दि के प्रारम्भ में कुशाणों ने भारत के उत्तर पश्चिम मोर्चे में अपना साम्राज्य स्थापित किया। कुशाण सम्राटों में सबसे अधिक प्रसिद्ध सम्राट कनिष्क (125 ई. से 162 ई. तक), जो कि कुशाण साम्राज्य का तीसरा सम्राट था। कुशाण शासन ईस्वी की तीसरी शताब्दि के मध्य तक चला। इस साम्राज्य की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ कला के गांधार घराने का विकास व बुद्ध मत का आगे एशिया के सुदूर क्षेत्रों में विस्तार करना रही।
अशोक के उत्तराधिकारी कमज़ोर शासक हुए, जिससे प्रान्तों को अपनी स्वतंत्रता का दावा करने का साहस हुआ। इतने बड़े साम्राज्य का प्रशासन चलाने के कठिन कार्य का संपादन कमज़ोर शासकों द्वारा नहीं हो सका। उत्तराधिकारियों के बीच आपसी लड़ाइयों ने भी मौर्य साम्राज्य के अवनति में योगदान किया।
ईसवी सन् की प्रथम शताब्दि के प्रारम्भ में कुशाणों ने भारत के उत्तर पश्चिम मोर्चे में अपना साम्राज्य स्थापित किया। कुशाण सम्राटों में सबसे अधिक प्रसिद्ध सम्राट कनिष्क (125 ई. से 162 ई. तक), जो कि कुशाण साम्राज्य का तीसरा सम्राट था। कुशाण शासन ईस्वी की तीसरी शताब्दि के मध्य तक चला। इस साम्राज्य की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ कला के गांधार घराने का विकास व बुद्ध मत का आगे एशिया के सुदूर क्षेत्रों में विस्तार करना रही।
गुप्त साम्राज्य
कुशाणों के बाद गुप्त साम्राज्य अति महत्वपूर्ण साम्राज्य था। गुप्त अवधि को भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग कहा जाता है। गुप्त साम्राज्य का पहला प्रसिद्ध सम्राट घटोत्कच का पुत्र चन्द्रगुप्त था। उसने कुमार देवी से विवाह किया जो कि लिच्छिवियों के प्रमुख की पुत्री थी। चन्द्रगुप्त के जीवन में यह विवाह परिवर्तन लाने वाला था। उसे लिच्छिवियों से पाटलीपुत्र दहेज में प्राप्त हुआ। पाटलीपुत्र से उसने अपने साम्राज्य की आधार शिला रखी व लिच्छिवियों की मदद से बहुत से पड़ोसी राज्यों को जीतना शुरू कर दिया। उसने मगध (बिहार), प्रयाग व साकेत (पूर्वी उत्तर प्रदेश) पर शासन किया। उसका साम्राज्य गंगा नदी से इलाहाबाद तक फैला हुआ था। चन्द्रगुप्त को महाराजाधिराज की उपाधि से विभूषित किया गया था और उसने लगभग पन्द्रह वर्ष तक शासन किया।
चन्द्रगुप्त का उत्तराधिकारी 330 ई0 में समुन्द्रगुप्त हुआ जिसने लगभग 50 वर्ष तक शासन किया। वह बहुत प्रतिभा सम्पन्न योद्धा था और बताया जाता है कि उसने पूरे दक्षिण में सैन्य अभियान का नेतृत्व किया तथा विन्ध्य क्षेत्र के बनवासी कबीलों को परास्त किया।
समुन्द्रगुप्त का उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त हुआ, जिसे विक्रमादित्य के नाम से भी जाना जाता है। उसने मालवा, गुजरात व काठियावाड़ के बड़े भूभागों पर विजय प्राप्त की। इससे उन्हे असाधारण धन प्राप्त हुआ और इससे गुप्त राज्य की समृद्धि में वृद्धि हुई। इस अवधि के दौरान गुप्त राजाओं ने पश्चिमी देशों के साथ समुद्री व्यापार प्रारम्भ किया। बहुत संभव है कि उसके शासनकाल में संस्कृत के महानतम कवि व नाटककार कालीदास व बहुत से दूसरे वैज्ञानिक व विद्वान फले-फूले।
कुशाणों के बाद गुप्त साम्राज्य अति महत्वपूर्ण साम्राज्य था। गुप्त अवधि को भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग कहा जाता है। गुप्त साम्राज्य का पहला प्रसिद्ध सम्राट घटोत्कच का पुत्र चन्द्रगुप्त था। उसने कुमार देवी से विवाह किया जो कि लिच्छिवियों के प्रमुख की पुत्री थी। चन्द्रगुप्त के जीवन में यह विवाह परिवर्तन लाने वाला था। उसे लिच्छिवियों से पाटलीपुत्र दहेज में प्राप्त हुआ। पाटलीपुत्र से उसने अपने साम्राज्य की आधार शिला रखी व लिच्छिवियों की मदद से बहुत से पड़ोसी राज्यों को जीतना शुरू कर दिया। उसने मगध (बिहार), प्रयाग व साकेत (पूर्वी उत्तर प्रदेश) पर शासन किया। उसका साम्राज्य गंगा नदी से इलाहाबाद तक फैला हुआ था। चन्द्रगुप्त को महाराजाधिराज की उपाधि से विभूषित किया गया था और उसने लगभग पन्द्रह वर्ष तक शासन किया।
चन्द्रगुप्त का उत्तराधिकारी 330 ई0 में समुन्द्रगुप्त हुआ जिसने लगभग 50 वर्ष तक शासन किया। वह बहुत प्रतिभा सम्पन्न योद्धा था और बताया जाता है कि उसने पूरे दक्षिण में सैन्य अभियान का नेतृत्व किया तथा विन्ध्य क्षेत्र के बनवासी कबीलों को परास्त किया।
समुन्द्रगुप्त का उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त हुआ, जिसे विक्रमादित्य के नाम से भी जाना जाता है। उसने मालवा, गुजरात व काठियावाड़ के बड़े भूभागों पर विजय प्राप्त की। इससे उन्हे असाधारण धन प्राप्त हुआ और इससे गुप्त राज्य की समृद्धि में वृद्धि हुई। इस अवधि के दौरान गुप्त राजाओं ने पश्चिमी देशों के साथ समुद्री व्यापार प्रारम्भ किया। बहुत संभव है कि उसके शासनकाल में संस्कृत के महानतम कवि व नाटककार कालीदास व बहुत से दूसरे वैज्ञानिक व विद्वान फले-फूले।
गुप्त शासन की अवनति
ईसा की 5वीं शताब्दि के अन्त व छठवीं शताब्दि में उत्तरी भारत में गुप्त शासन की अवनति से बहुत छोटे स्वतंत्र राज्यों में वृद्धि हुई व विदेशी हूणों के आक्रमणों को भी आकर्षित किया। हूणों का नेता तोरामोरा था। वह गुप्त साम्राज्य के बड़े हिस्सों को हड़पने में सफल रहा। उसका पुत्र मिहिराकुल बहुत निर्दय व बर्बर तथा सबसे बुरा ज्ञात तानाशाह था। दो स्थानीय शक्तिशाली राजकुमारों मालवा के यशोधर्मन और मगध के बालादित्य ने उसकी शक्ति को कुचला तथा भारत में उसके साम्राज्य को समाप्त किया।
ईसा की 5वीं शताब्दि के अन्त व छठवीं शताब्दि में उत्तरी भारत में गुप्त शासन की अवनति से बहुत छोटे स्वतंत्र राज्यों में वृद्धि हुई व विदेशी हूणों के आक्रमणों को भी आकर्षित किया। हूणों का नेता तोरामोरा था। वह गुप्त साम्राज्य के बड़े हिस्सों को हड़पने में सफल रहा। उसका पुत्र मिहिराकुल बहुत निर्दय व बर्बर तथा सबसे बुरा ज्ञात तानाशाह था। दो स्थानीय शक्तिशाली राजकुमारों मालवा के यशोधर्मन और मगध के बालादित्य ने उसकी शक्ति को कुचला तथा भारत में उसके साम्राज्य को समाप्त किया।
हर्षवर्धन
7वीं सदी के प्रारम्भ होने पर, हर्षवर्धन (606-647 इसवी में) ने अपने भाई राज्यवर्धन की मृत्यु होने पर थानेश्वर व कन्नौज की राजगद्दी संभाली। 612 इसवी तक उत्तर में अपना साम्राज्य सुदृढ़ कर लिया।
620 इसवी में हर्षवर्धन ने दक्षिण में चालुक्य साम्राज्य, जिस पर उस समय पुलकेसन द्वितीय का शासन था, पर आक्रमण कर दिया परन्तु चालुक्य ने बहुत जबरदस्त प्रतिरोध किया तथा हर्षवर्धन की हार हो गई। हर्षवर्धन की धार्मिक सहष्णुता, प्रशासनिक दक्षता व राजनयिक संबंध बनाने की योग्यता जगजाहिर है। उसने चीन के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए व अपने राजदूत वहां भेजे, जिन्होने चीनी राजाओं के साथ विचारों का आदान-प्रदान किया तथा एक दूसरे के संबंध में अपनी जानकारी का विकास किया।
चीनी यात्री ह्वेनसांग, जो उसके शासनकाल में भारत आया था ने, हर्षवर्धन के शासन के समय सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक स्थितियों का सजीव वर्णन किया है व हर्षवर्धन की प्रशंसा की है। हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भारत एक बार फिर केंद्रीय सर्वोच्च शक्ति से वंचित हो गया।
7वीं सदी के प्रारम्भ होने पर, हर्षवर्धन (606-647 इसवी में) ने अपने भाई राज्यवर्धन की मृत्यु होने पर थानेश्वर व कन्नौज की राजगद्दी संभाली। 612 इसवी तक उत्तर में अपना साम्राज्य सुदृढ़ कर लिया।
620 इसवी में हर्षवर्धन ने दक्षिण में चालुक्य साम्राज्य, जिस पर उस समय पुलकेसन द्वितीय का शासन था, पर आक्रमण कर दिया परन्तु चालुक्य ने बहुत जबरदस्त प्रतिरोध किया तथा हर्षवर्धन की हार हो गई। हर्षवर्धन की धार्मिक सहष्णुता, प्रशासनिक दक्षता व राजनयिक संबंध बनाने की योग्यता जगजाहिर है। उसने चीन के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए व अपने राजदूत वहां भेजे, जिन्होने चीनी राजाओं के साथ विचारों का आदान-प्रदान किया तथा एक दूसरे के संबंध में अपनी जानकारी का विकास किया।
चीनी यात्री ह्वेनसांग, जो उसके शासनकाल में भारत आया था ने, हर्षवर्धन के शासन के समय सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक स्थितियों का सजीव वर्णन किया है व हर्षवर्धन की प्रशंसा की है। हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भारत एक बार फिर केंद्रीय सर्वोच्च शक्ति से वंचित हो गया।
बादामी के चालुक्य
6ठवीं और 8ठवीं इसवी के दौरान दक्षिण भारत में चालुक्य बड़े शक्तिशाली थे। इस साम्राज्य का प्रथम शासक पुलकेसन, 540 इसवी मे शासनारूढ़ हुआ और कई शानदार विजय हासिल कर उसने शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना किया। उसके पुत्रों कीर्तिवर्मन व मंगलेसा ने कोंकण के मौर्यन सहित अपने पड़ोसियों के साथ कई युद्ध करके सफलताएं अर्जित की व अपने राज्य का और विस्तार किया।
कीर्तिवर्मन का पुत्र पुलकेसन द्वितीय, चालुक्य साम्राज्य के महान शासकों में से एक था, उसने लगभग 34 वर्षों तक राज्य किया। अपने लम्बे शासनकाल में उसने महाराष्ट्र में अपनी स्थिति सुदृढ़ की व दक्षिण के बड़े भूभाग को जीत लिया, उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि हर्षवर्धन के विरूद्ध रक्षात्मक युद्ध लड़ना थी।
तथापि 642 इसवी में पल्लव राजा ने पुलकेसन को परास्त कर मार डाला। उसका पुत्र विक्रमादित्य, जो कि अपने पिता के समान महान शासक था, गद्दी पर बैठा। उसने दक्षिण के अपने शत्रुओं के विरूद्ध पुन: संघर्ष प्रारंभ किया। उसने चालुक्यों के पुराने वैभव को काफी हद तक पुन: प्राप्त किया। यहां तक कि उसका परपोता विक्रमादित्य द्वितीय भी महान योद्धा था। 753 इसवी में विक्रमादित्य व उसके पुत्र का दंती दुर्गा नाम के एक सरदार ने तख्ता पलट दिया। उसने महाराष्ट्र व कर्नाटक में एक और महान साम्राज्य की स्थापना की जो राष्ट्र कूट कहलाया।
6ठवीं और 8ठवीं इसवी के दौरान दक्षिण भारत में चालुक्य बड़े शक्तिशाली थे। इस साम्राज्य का प्रथम शासक पुलकेसन, 540 इसवी मे शासनारूढ़ हुआ और कई शानदार विजय हासिल कर उसने शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना किया। उसके पुत्रों कीर्तिवर्मन व मंगलेसा ने कोंकण के मौर्यन सहित अपने पड़ोसियों के साथ कई युद्ध करके सफलताएं अर्जित की व अपने राज्य का और विस्तार किया।
कीर्तिवर्मन का पुत्र पुलकेसन द्वितीय, चालुक्य साम्राज्य के महान शासकों में से एक था, उसने लगभग 34 वर्षों तक राज्य किया। अपने लम्बे शासनकाल में उसने महाराष्ट्र में अपनी स्थिति सुदृढ़ की व दक्षिण के बड़े भूभाग को जीत लिया, उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि हर्षवर्धन के विरूद्ध रक्षात्मक युद्ध लड़ना थी।
तथापि 642 इसवी में पल्लव राजा ने पुलकेसन को परास्त कर मार डाला। उसका पुत्र विक्रमादित्य, जो कि अपने पिता के समान महान शासक था, गद्दी पर बैठा। उसने दक्षिण के अपने शत्रुओं के विरूद्ध पुन: संघर्ष प्रारंभ किया। उसने चालुक्यों के पुराने वैभव को काफी हद तक पुन: प्राप्त किया। यहां तक कि उसका परपोता विक्रमादित्य द्वितीय भी महान योद्धा था। 753 इसवी में विक्रमादित्य व उसके पुत्र का दंती दुर्गा नाम के एक सरदार ने तख्ता पलट दिया। उसने महाराष्ट्र व कर्नाटक में एक और महान साम्राज्य की स्थापना की जो राष्ट्र कूट कहलाया।
कांची के पल्लव
छठवीं सदी की अंतिम चौथाई में पल्लव राजा सिंहविष्णु शक्तिशाली हुआ तथा कृष्णा व कावेरी नदियों के बीच के क्षेत्र को जीत लिया। उसका पुत्र व उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन प्रतिभाशाली व्यक्ति था, जो दुर्भाग्य से चालुक्य राजा पुलकेसन द्वितीय के हाथों परास्त होकर अपने राज्य के उत्तरी भाग को खो बैठा। परन्तु उसके पुत्र नरसिंह वर्मन प्रथम ने चालुक्य शक्ति का दमन किया। पल्लव राज्य नरसिंह वर्मन द्वितीय के शासनकाल में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचा। वह अपनी स्थापत्य कला की उपलब्धियों के लिए प्रसिद्ध था, उसने बहुत से मन्दिरों का निर्माण करवाया तथा उसके समय में कला व साहित्य फला-फूला। संस्कृत का महान विद्वान दानदिन उस के राजदरबार में था। तथापि उसकी मृत्यु के बाद पल्लव साम्राज्य की अवनति होती गई। समय के साथ-साथ यह मात्र स्थानीय कबीले की शक्ति के रूप में रह गया। आखिरकार चोल राजा ने 9वीं इसवी. के समापन के आस-पास पल्लव राजा अपराजित को परास्त कर उसका साम्राज्य हथिया लिया।
भारत के प्राचीन इतिहास ने, कई साम्राज्यों, जिन्होंने अपनी ऐसी बपौती पीछे छोड़ी है, जो भारत के स्वर्णिम इतिहास में अभी भी गूंज रही है, का उत्थान व पतन देखा है। 9वीं इसवी. के समाप्त होते-होते भारत का मध्यकालीन इतिहास पाला, सेना, प्रतिहार और राष्ट्र कूट आदि - आदि उत्थान से प्रारंभ होता है।
छठवीं सदी की अंतिम चौथाई में पल्लव राजा सिंहविष्णु शक्तिशाली हुआ तथा कृष्णा व कावेरी नदियों के बीच के क्षेत्र को जीत लिया। उसका पुत्र व उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन प्रतिभाशाली व्यक्ति था, जो दुर्भाग्य से चालुक्य राजा पुलकेसन द्वितीय के हाथों परास्त होकर अपने राज्य के उत्तरी भाग को खो बैठा। परन्तु उसके पुत्र नरसिंह वर्मन प्रथम ने चालुक्य शक्ति का दमन किया। पल्लव राज्य नरसिंह वर्मन द्वितीय के शासनकाल में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचा। वह अपनी स्थापत्य कला की उपलब्धियों के लिए प्रसिद्ध था, उसने बहुत से मन्दिरों का निर्माण करवाया तथा उसके समय में कला व साहित्य फला-फूला। संस्कृत का महान विद्वान दानदिन उस के राजदरबार में था। तथापि उसकी मृत्यु के बाद पल्लव साम्राज्य की अवनति होती गई। समय के साथ-साथ यह मात्र स्थानीय कबीले की शक्ति के रूप में रह गया। आखिरकार चोल राजा ने 9वीं इसवी. के समापन के आस-पास पल्लव राजा अपराजित को परास्त कर उसका साम्राज्य हथिया लिया।
भारत के प्राचीन इतिहास ने, कई साम्राज्यों, जिन्होंने अपनी ऐसी बपौती पीछे छोड़ी है, जो भारत के स्वर्णिम इतिहास में अभी भी गूंज रही है, का उत्थान व पतन देखा है। 9वीं इसवी. के समाप्त होते-होते भारत का मध्यकालीन इतिहास पाला, सेना, प्रतिहार और राष्ट्र कूट आदि - आदि उत्थान से प्रारंभ होता है।
भारत का मध्यकालीन इतिहास
आने वाला समय जो इस्लामिक प्रभाव और भारत पर शासन के साथ सशक्त रूप से संबंध रखता है, मध्य कालीन भारतीय इतिहास तथाकथित स्वदेशी शासकों के अधीन लगभग तीन शताब्दियों तक चलता रहा, जिसमें चालुक्य, पल्व, पाण्डया, राष्ट्रकूट शामिल हैं, मुस्लिम शासक और अंतत: मुगल साम्राज्य। नौवी शताब्दी के मध्य में उभरने वाला सबसे महत्वपूर्ण राजवंश चोल राजवंश था।
आने वाला समय जो इस्लामिक प्रभाव और भारत पर शासन के साथ सशक्त रूप से संबंध रखता है, मध्य कालीन भारतीय इतिहास तथाकथित स्वदेशी शासकों के अधीन लगभग तीन शताब्दियों तक चलता रहा, जिसमें चालुक्य, पल्व, पाण्डया, राष्ट्रकूट शामिल हैं, मुस्लिम शासक और अंतत: मुगल साम्राज्य। नौवी शताब्दी के मध्य में उभरने वाला सबसे महत्वपूर्ण राजवंश चोल राजवंश था।
पाल
आठवीं और दसवीं शताब्दी ए.डी. के बीच अनेक शक्तिशाली शासकों ने भारत के पूर्वी और उत्तरी भागों पर प्रभुत्व बनाए रखा। पाल राजा धर्मपाल, जो गोपाल के पुत्र थे, में आठवीं शताब्दी ए.डी. से नौवी शताब्दी ए.डी. के अंत तक शासन किया। धर्मपाल द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय और विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना इसी अवधि में की गई।
आठवीं और दसवीं शताब्दी ए.डी. के बीच अनेक शक्तिशाली शासकों ने भारत के पूर्वी और उत्तरी भागों पर प्रभुत्व बनाए रखा। पाल राजा धर्मपाल, जो गोपाल के पुत्र थे, में आठवीं शताब्दी ए.डी. से नौवी शताब्दी ए.डी. के अंत तक शासन किया। धर्मपाल द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय और विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना इसी अवधि में की गई।
सेन
पाल वंश के पतन के बाद सेन राजवंश ने बंगाल में शासन स्थापित किया। इस राजवंश के स्थापक सामंत सेन थे। इस राजवंश के महानतम शासक विजय सेन थे। उन्होंने पूरे बंगाल पर कब्जा किया और उनके बाद उनके पुत्र बल्लाल सेन ने राज किया। उनका शासन शांतिपूर्ण रहा किन्तु इसने अपने विचारधाराओं को समूचा बनाए रखा। वे एक महान विद्वान थे तथा उन्होंने ज्योतिष विज्ञान पर एक पुस्तक सहित चार पुस्तके लिखी। इस राजवंश के अंतिम शासक लक्ष्मण सेन थे, जिनके कार्यकाल में मुस्लिमों ने बंगाल पर शासन किया और फिर साम्राज्य समाप्त हो गया।
पाल वंश के पतन के बाद सेन राजवंश ने बंगाल में शासन स्थापित किया। इस राजवंश के स्थापक सामंत सेन थे। इस राजवंश के महानतम शासक विजय सेन थे। उन्होंने पूरे बंगाल पर कब्जा किया और उनके बाद उनके पुत्र बल्लाल सेन ने राज किया। उनका शासन शांतिपूर्ण रहा किन्तु इसने अपने विचारधाराओं को समूचा बनाए रखा। वे एक महान विद्वान थे तथा उन्होंने ज्योतिष विज्ञान पर एक पुस्तक सहित चार पुस्तके लिखी। इस राजवंश के अंतिम शासक लक्ष्मण सेन थे, जिनके कार्यकाल में मुस्लिमों ने बंगाल पर शासन किया और फिर साम्राज्य समाप्त हो गया।
प्रतिहार
प्रतिहार राजवंश के महानतम शासक मिहिर भोज थे। उन्होंने 836 में कन्नौज (कान्यकुब्ज) की खोज की और लगभग एक शताब्दी तक प्रतिहारों की राजधानी बनाया। उन्होंने भोजपाल (वर्तमान भोपाल) शहर का निर्माण किया। राजा भोज और उनके अन्य सहवर्ती गुजर राजाओं को पश्चिम की ओर से अरब जनों के अनेक आक्रमणों का सामना करना पड़ा और पराजित होना पड़ा।
वर्ष 915 - 918 ए.डी. के बीच कन्नौज पर राष्ट्रकूट राजा ने आक्रमण किया। जिसने शहर को विरान बना दिया और प्रतिहार साम्राज्य की जड़ें कमजोर दी। वर्ष 1018 में कन्नौज ने राज्यपाल प्रतिहार का शासन देखा, जिसे गजनी के महमूद ने लूटा। पूरा साम्राज्य स्वतंत्रता राजपूत राज्यों में टूट गया।
प्रतिहार राजवंश के महानतम शासक मिहिर भोज थे। उन्होंने 836 में कन्नौज (कान्यकुब्ज) की खोज की और लगभग एक शताब्दी तक प्रतिहारों की राजधानी बनाया। उन्होंने भोजपाल (वर्तमान भोपाल) शहर का निर्माण किया। राजा भोज और उनके अन्य सहवर्ती गुजर राजाओं को पश्चिम की ओर से अरब जनों के अनेक आक्रमणों का सामना करना पड़ा और पराजित होना पड़ा।
वर्ष 915 - 918 ए.डी. के बीच कन्नौज पर राष्ट्रकूट राजा ने आक्रमण किया। जिसने शहर को विरान बना दिया और प्रतिहार साम्राज्य की जड़ें कमजोर दी। वर्ष 1018 में कन्नौज ने राज्यपाल प्रतिहार का शासन देखा, जिसे गजनी के महमूद ने लूटा। पूरा साम्राज्य स्वतंत्रता राजपूत राज्यों में टूट गया।
राष्ट्रकूट
इस राजवंश ने कर्नाटक पर राज्य किया और यह कई कारणों से उल्लेखनीय है। उन्होंने किसी अन्य राजवंश की तुलना में एक बड़े हिस्से पर राज किया। वे कला और साहित्व के महान संरक्षक थे। अनेक राष्टकूट राजाओं द्वारा शिक्षा और साहित्य को दिया गया प्रोत्साहन अनोखा है और उनके द्वारा धार्मिक सहनशीलता का उदाहरण अनुकरणीय है।
इस राजवंश ने कर्नाटक पर राज्य किया और यह कई कारणों से उल्लेखनीय है। उन्होंने किसी अन्य राजवंश की तुलना में एक बड़े हिस्से पर राज किया। वे कला और साहित्व के महान संरक्षक थे। अनेक राष्टकूट राजाओं द्वारा शिक्षा और साहित्य को दिया गया प्रोत्साहन अनोखा है और उनके द्वारा धार्मिक सहनशीलता का उदाहरण अनुकरणीय है।
दक्षिण का चोल राजवंश
यह भारतीय महाद्वीप के एक बड़े हिस्से को शामिल करते हुए नौवीं शताब्दी ए.डी. के मध्य में उभरा साथ ही यह श्रीलंका तथा मालदीव में भी फैला था।
इस राजवंश से उभरने वाला प्रथम महत्वपूर्ण शासक राजराजा चोल 1 और उनके पुत्र तथा उत्तरवर्ती राजेन्द्र चोल थे। राजराजा ने अपने पिता की जोड़ने की नीति को आगे बढ़ाया। उसने बंगाल, ओडिशा और मध्य प्रदेश के दूरदराज के इलाकों पर सशस्त्र चढ़ाई की।
राजेन्द्र I, राजाधिराज और राजेन्द्र II के उत्तरवर्ती निडर शासक थे जो चालुक्य राजाओं से आगे चलकर वीरतापूर्वक लड़े किन्तु चोल राजवंश के पतन को रोक नहीं पाए। आगे चलकर चोल राजा कमजोर और अक्षम शासक सिद्ध हुए। इस प्रकार चोल साम्राज्य आगे लगभग डेढ़ शताब्दी तक आगे चला और अंतत: चौदहवीं शताब्दी ए.डी. की शुरूआत में मलिक कफूर के आक्रमण पर समाप्त हो गया।
यह भारतीय महाद्वीप के एक बड़े हिस्से को शामिल करते हुए नौवीं शताब्दी ए.डी. के मध्य में उभरा साथ ही यह श्रीलंका तथा मालदीव में भी फैला था।
इस राजवंश से उभरने वाला प्रथम महत्वपूर्ण शासक राजराजा चोल 1 और उनके पुत्र तथा उत्तरवर्ती राजेन्द्र चोल थे। राजराजा ने अपने पिता की जोड़ने की नीति को आगे बढ़ाया। उसने बंगाल, ओडिशा और मध्य प्रदेश के दूरदराज के इलाकों पर सशस्त्र चढ़ाई की।
राजेन्द्र I, राजाधिराज और राजेन्द्र II के उत्तरवर्ती निडर शासक थे जो चालुक्य राजाओं से आगे चलकर वीरतापूर्वक लड़े किन्तु चोल राजवंश के पतन को रोक नहीं पाए। आगे चलकर चोल राजा कमजोर और अक्षम शासक सिद्ध हुए। इस प्रकार चोल साम्राज्य आगे लगभग डेढ़ शताब्दी तक आगे चला और अंतत: चौदहवीं शताब्दी ए.डी. की शुरूआत में मलिक कफूर के आक्रमण पर समाप्त हो गया।
दक्षिण एशिया में इस्लाम का उदय
पैगम्बर मुहम्मद की मृत्यु के बाद प्रथम शताब्दी में दक्षिण एशिया के अंदर इस्लाम का आरंभिक प्रवेश हुआ। उमायद खलीफा ने डमस्कस में बलूचिस्तान और सिंध पर 711 में मुहम्मद बिन कासिन के नेतृत्व में चढ़ाई की। उन्होंने सिंध और मुलतान पर कब्जा कर लिया। उनकी मौत के 300 साल बाद सुल्तान मेहमूद गजनी, जो एक खूंख्वार नेता थे, ने राजपूत राजशाहियों के विरुद्ध तथा धनवान हिन्दू मंदिरों पर छापामारी की एक श्रृंखला आरंभ की तथा भावी चढ़ाइयों के लिए पंजाब में अपना एक आधार स्थापित किया। वर्ष 1024 में सुल्तान ने अरब सागर के साथ काठियावाड़ के दक्षिणी तट पर अपना अंतिम प्रसिद्ध खोज का दौर शुरु किया, जहां उसने सोमनाथ शहर पर हमला किया और साथ ही अनेक प्रतिष्ठित हिंदू मंदिरों पर आक्रमण किया।
पैगम्बर मुहम्मद की मृत्यु के बाद प्रथम शताब्दी में दक्षिण एशिया के अंदर इस्लाम का आरंभिक प्रवेश हुआ। उमायद खलीफा ने डमस्कस में बलूचिस्तान और सिंध पर 711 में मुहम्मद बिन कासिन के नेतृत्व में चढ़ाई की। उन्होंने सिंध और मुलतान पर कब्जा कर लिया। उनकी मौत के 300 साल बाद सुल्तान मेहमूद गजनी, जो एक खूंख्वार नेता थे, ने राजपूत राजशाहियों के विरुद्ध तथा धनवान हिन्दू मंदिरों पर छापामारी की एक श्रृंखला आरंभ की तथा भावी चढ़ाइयों के लिए पंजाब में अपना एक आधार स्थापित किया। वर्ष 1024 में सुल्तान ने अरब सागर के साथ काठियावाड़ के दक्षिणी तट पर अपना अंतिम प्रसिद्ध खोज का दौर शुरु किया, जहां उसने सोमनाथ शहर पर हमला किया और साथ ही अनेक प्रतिष्ठित हिंदू मंदिरों पर आक्रमण किया।
भारत में मुस्लिम आक्रमण
मोहम्मद गोरी ने मुल्तान और पंजाब पर विजय पाने के बाद 1175 ए.डी. में भारत पर आक्रमण किया, वह दिल्ली की ओर आगे बढ़ा। उत्तरी भारत के बहादुर राजपूत राजाओं ने पृथ्वी राज चौहान के नेतृत्व में 1191 ए.डी. में तराइन के प्रथम युद्ध में पराजित किया। एक साल चले युद्ध के पश्चात मोहम्मद गोरी अपनी पराजय का बदला लेने दोबारा आया। वर्ष 1192 ए.डी. के दौरान तराइन में एक अत्यंत भयानक युद्ध लड़ा गया, जिसमें राजपूत पराजित हुए और पृथ्वी राज चौहान को पकड़ कर मौत के घाट उतार दिया गया। तराइन का दूसरा युद्ध एक निर्णायक युद्ध सिद्ध हुआ और इसमें उत्तरी भारत में मुस्लिम शासन की आधारशिला रखी।
मोहम्मद गोरी ने मुल्तान और पंजाब पर विजय पाने के बाद 1175 ए.डी. में भारत पर आक्रमण किया, वह दिल्ली की ओर आगे बढ़ा। उत्तरी भारत के बहादुर राजपूत राजाओं ने पृथ्वी राज चौहान के नेतृत्व में 1191 ए.डी. में तराइन के प्रथम युद्ध में पराजित किया। एक साल चले युद्ध के पश्चात मोहम्मद गोरी अपनी पराजय का बदला लेने दोबारा आया। वर्ष 1192 ए.डी. के दौरान तराइन में एक अत्यंत भयानक युद्ध लड़ा गया, जिसमें राजपूत पराजित हुए और पृथ्वी राज चौहान को पकड़ कर मौत के घाट उतार दिया गया। तराइन का दूसरा युद्ध एक निर्णायक युद्ध सिद्ध हुआ और इसमें उत्तरी भारत में मुस्लिम शासन की आधारशिला रखी।
दिल्ली की सल्तनत
भारत के इतिहास में 1206 ए.डी. और 1526 ए.डी. के बीच की अवधि दिल्ली का सल्तनत कार्यकाल कही जाती है। इस अवधि के दौरान 300 वर्षों से अधिक समय में दिल्ली पर पांच राजवंशों ने शासन किया। ये थे गुलाम राजवंश (1206-90), खिलजी राजवंश (1290-1320), तुगलक राजवंश (1320-1413), सायीद राजवंश (1414-51), और लोदी राजवंश (1451-1526)।
भारत के इतिहास में 1206 ए.डी. और 1526 ए.डी. के बीच की अवधि दिल्ली का सल्तनत कार्यकाल कही जाती है। इस अवधि के दौरान 300 वर्षों से अधिक समय में दिल्ली पर पांच राजवंशों ने शासन किया। ये थे गुलाम राजवंश (1206-90), खिलजी राजवंश (1290-1320), तुगलक राजवंश (1320-1413), सायीद राजवंश (1414-51), और लोदी राजवंश (1451-1526)।
गुलाम राजवंश
इस्लाम में समानता की संकल्पना और मुस्लिम परम्पराएं दक्षिण एशिया के इतिहास में अपने चरम बिन्दु पर पहुंच गई, जब गुलामों ने सुल्तान का दर्जा हासिल किया। गुलाम राजवंश ने लगभग 84 वर्षों तक इस उप महाद्वीप पर शासन किया। यह प्रथम मुस्लिम राजवंश था जिसने भारत पर शासन किया। मोहम्मद गोरी का एक गुलाम कुतुब उद दीन ऐबक अपने मालिक की मृत्यु के बाद शासक बना और गुलाम राजवंश की स्थापना की। वह एक महान निर्माता था जिसने दिल्ली में कुतुब मीनार के नाम से विख्यात आश्चर्यजनक 238 फीट ऊंचे पत्थर के स्तंभ का निर्माण कराया।
गुलाम राजवंश का अगला महत्वपूर्ण राजा शम्स उद दीन इलतुतमश था, जो कुतुब उद दीन ऐबक का गुलाम था। इलतुतमश ने 1211 से 1236 के बीच लगभग 26 वर्ष तक राज किया और वह मजबूत आधार पर दिल्ली की सल्तनत स्थापित करने के लिए उत्तरदायी था। इलतुतमश की सक्षम बेटी, रजिया बेगम अपनी और अंतिम मुस्लिम महिला थी जिसने दिल्ली के तख्त पर राज किया। वह बहादुरी से लड़ी किन्तु अंत में पराजित होने पर उसे मार डाला गया।
अंत में इलतुतमश के सबसे छोटे बेटे नसीर उद दीन मेहमूद को 1245 में सुल्तान बनाया गया। जबकि मेहमूद ने लगभग 20 वर्ष तक भारत पर शासन किया। किन्तु अपने पूरे कार्यकाल में उसकी मुख्य शक्ति उसके प्रधानमंत्री बलबन के हाथों में रही। मेहमूद की मौत होने पर बलबन ने सिंहासन पर कब्ज़ा किया और दिल्ली पर राज किया। वर्ष 1266 से 1287 तक बलबन ने अपने कार्यकाल में साम्राज्य का प्रशासनिक ढांचा सुगठित किया तथा इलतुतमश द्वारा शुरू किए गए कार्यों को पूरा किया।
इस्लाम में समानता की संकल्पना और मुस्लिम परम्पराएं दक्षिण एशिया के इतिहास में अपने चरम बिन्दु पर पहुंच गई, जब गुलामों ने सुल्तान का दर्जा हासिल किया। गुलाम राजवंश ने लगभग 84 वर्षों तक इस उप महाद्वीप पर शासन किया। यह प्रथम मुस्लिम राजवंश था जिसने भारत पर शासन किया। मोहम्मद गोरी का एक गुलाम कुतुब उद दीन ऐबक अपने मालिक की मृत्यु के बाद शासक बना और गुलाम राजवंश की स्थापना की। वह एक महान निर्माता था जिसने दिल्ली में कुतुब मीनार के नाम से विख्यात आश्चर्यजनक 238 फीट ऊंचे पत्थर के स्तंभ का निर्माण कराया।
गुलाम राजवंश का अगला महत्वपूर्ण राजा शम्स उद दीन इलतुतमश था, जो कुतुब उद दीन ऐबक का गुलाम था। इलतुतमश ने 1211 से 1236 के बीच लगभग 26 वर्ष तक राज किया और वह मजबूत आधार पर दिल्ली की सल्तनत स्थापित करने के लिए उत्तरदायी था। इलतुतमश की सक्षम बेटी, रजिया बेगम अपनी और अंतिम मुस्लिम महिला थी जिसने दिल्ली के तख्त पर राज किया। वह बहादुरी से लड़ी किन्तु अंत में पराजित होने पर उसे मार डाला गया।
अंत में इलतुतमश के सबसे छोटे बेटे नसीर उद दीन मेहमूद को 1245 में सुल्तान बनाया गया। जबकि मेहमूद ने लगभग 20 वर्ष तक भारत पर शासन किया। किन्तु अपने पूरे कार्यकाल में उसकी मुख्य शक्ति उसके प्रधानमंत्री बलबन के हाथों में रही। मेहमूद की मौत होने पर बलबन ने सिंहासन पर कब्ज़ा किया और दिल्ली पर राज किया। वर्ष 1266 से 1287 तक बलबन ने अपने कार्यकाल में साम्राज्य का प्रशासनिक ढांचा सुगठित किया तथा इलतुतमश द्वारा शुरू किए गए कार्यों को पूरा किया।
खिलजी राजवंश
बलवन की मौत के बाद सल्तनत कमजोर हो गई और यहां कई बगावतें हुईं। यही वह समय था जब राजाओं ने जलाल उद दीन खिलजी को राजगद्दी पर बिठाया। इससे खिलजी राजवंश की स्थापना आरंभ हुई। इस राजवंश का राजकाज 1290 ए.डी. में शुरू हुआ। अला उद दीन खिलजी जो जलाल उद दीन खिलजी का भतीजा था, ने षड़यंत्र किया और सुल्तान जलाल उद दीन को मार कर 1296 में स्वयं सुल्तान बन बैठा। अला उद दीन खिलजी प्रथम मुस्लिम शासक था जिसके राज्य ने पूरे भारत का लगभग सारा हिस्सा दक्षिण के सिरे तक शामिल था। उसने कई लड़ाइयां लड़ी, गुजरात, रणथम्भौर, चित्तौड़, मलवा और दक्षिण पर विजय पाई। उसके 20 वर्ष के शासन काल में कई बार मंगोलों ने देश पर आक्रमण किया किन्तु उन्हें सफलतापूर्वक पीछे खदेड़ दिया गया। इन आक्रमणों से अला उद दीन खिलजी ने स्वयं को तैयार रखने का सबक लिया और अपनी सशस्त्र सेनाओं को संपुष्ट तथा संगठित किया। वर्ष 1316 ए.डी. में अला उद दीन की मौत हो गई और उसकी मौत के साथ खिलजी राजवंश समाप्त हो गया।
बलवन की मौत के बाद सल्तनत कमजोर हो गई और यहां कई बगावतें हुईं। यही वह समय था जब राजाओं ने जलाल उद दीन खिलजी को राजगद्दी पर बिठाया। इससे खिलजी राजवंश की स्थापना आरंभ हुई। इस राजवंश का राजकाज 1290 ए.डी. में शुरू हुआ। अला उद दीन खिलजी जो जलाल उद दीन खिलजी का भतीजा था, ने षड़यंत्र किया और सुल्तान जलाल उद दीन को मार कर 1296 में स्वयं सुल्तान बन बैठा। अला उद दीन खिलजी प्रथम मुस्लिम शासक था जिसके राज्य ने पूरे भारत का लगभग सारा हिस्सा दक्षिण के सिरे तक शामिल था। उसने कई लड़ाइयां लड़ी, गुजरात, रणथम्भौर, चित्तौड़, मलवा और दक्षिण पर विजय पाई। उसके 20 वर्ष के शासन काल में कई बार मंगोलों ने देश पर आक्रमण किया किन्तु उन्हें सफलतापूर्वक पीछे खदेड़ दिया गया। इन आक्रमणों से अला उद दीन खिलजी ने स्वयं को तैयार रखने का सबक लिया और अपनी सशस्त्र सेनाओं को संपुष्ट तथा संगठित किया। वर्ष 1316 ए.डी. में अला उद दीन की मौत हो गई और उसकी मौत के साथ खिलजी राजवंश समाप्त हो गया।
तुगलक राजवंश
गयासुद्दीन तुगलक, जो अला उद दीन खिलजी के कार्यकाल में पंजाब का राज्यपाल था, 1320 ए.डी. में सिंहासन पर बैठा और तुगलक राजवंश की स्थापना की। उसने वारंगल पर विजय पाई और बंगाल में बगावत की। मुहम्मद बिन तुगलक ने अपने पिता का स्थान लिया और अपने राज्य को भारत से आगे मध्य एशिया तक आगे बढ़ाया। मंगोल ने तुगलक के शासन काल में भारत पर आक्रमण किया और उन्हें भी इस बार हराया गया।
मुहम्मद बिन तुगलक ने अपनी राजधानी को दक्षिण में सबसे पहले दिल्ली से हटाकर देवगिरी में स्थापित किया। जबकि इसे दो वर्ष में वापस लाया गया। उसने एक बड़े साम्राज्य को विरासत में पाया था किन्तु वह कई प्रांतों को अपने नियंत्रण में नहीं रख सका, विशेष रूप से दक्षिण और बंगाल को। उसकी मौत 1351 ए.डी. में हुई और उसके चचेरे भाई फिरोज़ तुगलक ने उसका स्थान लिया।
फिरोज तुगलक ने साम्राज्य की सीमाएं आगे बढ़ाने में बहुत अधिक योगदान नहीं दिया, जो उसे विरासत में मिली थी। उसने अपनी शक्ति का अधिकांश भाग लोगों के जीवन को बेहतर बनाने में लगाया। वर्ष 1338 ने उसकी मौत के बाद तुगलक राजवंश लगभग समाप्त हो गया। यद्यपि तुगलक शासन 1412 तक चलता रहा फिर भी 1398 में तैमूर द्वारा दिल्ली पर आक्रमण को तुगलक साम्राज्य का अंत कहा जा सकता है।
गयासुद्दीन तुगलक, जो अला उद दीन खिलजी के कार्यकाल में पंजाब का राज्यपाल था, 1320 ए.डी. में सिंहासन पर बैठा और तुगलक राजवंश की स्थापना की। उसने वारंगल पर विजय पाई और बंगाल में बगावत की। मुहम्मद बिन तुगलक ने अपने पिता का स्थान लिया और अपने राज्य को भारत से आगे मध्य एशिया तक आगे बढ़ाया। मंगोल ने तुगलक के शासन काल में भारत पर आक्रमण किया और उन्हें भी इस बार हराया गया।
मुहम्मद बिन तुगलक ने अपनी राजधानी को दक्षिण में सबसे पहले दिल्ली से हटाकर देवगिरी में स्थापित किया। जबकि इसे दो वर्ष में वापस लाया गया। उसने एक बड़े साम्राज्य को विरासत में पाया था किन्तु वह कई प्रांतों को अपने नियंत्रण में नहीं रख सका, विशेष रूप से दक्षिण और बंगाल को। उसकी मौत 1351 ए.डी. में हुई और उसके चचेरे भाई फिरोज़ तुगलक ने उसका स्थान लिया।
फिरोज तुगलक ने साम्राज्य की सीमाएं आगे बढ़ाने में बहुत अधिक योगदान नहीं दिया, जो उसे विरासत में मिली थी। उसने अपनी शक्ति का अधिकांश भाग लोगों के जीवन को बेहतर बनाने में लगाया। वर्ष 1338 ने उसकी मौत के बाद तुगलक राजवंश लगभग समाप्त हो गया। यद्यपि तुगलक शासन 1412 तक चलता रहा फिर भी 1398 में तैमूर द्वारा दिल्ली पर आक्रमण को तुगलक साम्राज्य का अंत कहा जा सकता है।
तैमूर का आक्रमण
तुगलक राजवंश के अंतिम राजा के कार्याकाल के दौरान शक्तिशाली राजा तैमूर या टेमरलेन ने 1398 ए.डी. में भारत पर आक्रमण किया। उसने सिंधु नदी को पार किया और मुल्तान पर कब्ज़ा किया तथा बहुत अधिक प्रतिरोध का सामना न करते हुए दिल्ली तक चला आया।
तुगलक राजवंश के अंतिम राजा के कार्याकाल के दौरान शक्तिशाली राजा तैमूर या टेमरलेन ने 1398 ए.डी. में भारत पर आक्रमण किया। उसने सिंधु नदी को पार किया और मुल्तान पर कब्ज़ा किया तथा बहुत अधिक प्रतिरोध का सामना न करते हुए दिल्ली तक चला आया।
सायीद राजवंश
इसके बाद खिज़ार खान द्वारा सायीद राजवंश की स्थापना की गई। सायीद ने लगभग 1414 ए.डी. से 1450 ए.डी. तक शासन किया। खिज़ार खान ने लगभग 37 वर्ष तक राज्य किया। सायीद राजवंश में अंतिम मोहम्मद बिन फरीद थे। उनके कार्यकाल में भ्रम और बगावत की स्थिति बनी हुई। यह साम्राज्य उनकी मृत्यु के बाद 1451 ए.डी. में समाप्त हो गया।
इसके बाद खिज़ार खान द्वारा सायीद राजवंश की स्थापना की गई। सायीद ने लगभग 1414 ए.डी. से 1450 ए.डी. तक शासन किया। खिज़ार खान ने लगभग 37 वर्ष तक राज्य किया। सायीद राजवंश में अंतिम मोहम्मद बिन फरीद थे। उनके कार्यकाल में भ्रम और बगावत की स्थिति बनी हुई। यह साम्राज्य उनकी मृत्यु के बाद 1451 ए.डी. में समाप्त हो गया।
लोदी राजवंश
बुहलुल खान लोदी (1451-1489 ए. डी.)
वे लोदी राजवंश के प्रथम राजा और संस्थापक थे। दिल्ली की सलतनत को उनकी पुरानी भव्यता में वापस लाने के लिए विचार से उन्होंने जौनपुर के शक्तिशाली राजवंश के साथ अनेक क्षेत्रों पर विजय पाई। बुहलुल खान ने ग्वालियर, जौनपुर और उत्तर प्रदेश में अपना क्षेत्र विस्तारित किया।
सिकंदर खान लोदी (1489-1517 ए. डी.)
बुहलुल खान की मृत्यु के बाद उनके दूसरे पुत्र निज़ाम शाह राजा घोषित किए गए और 1489 में उन्हें सुल्तान सिकंदर शाह का खिताब दिया गया। उन्होंने अपने राज्य को मजबूत बनाने के सभी प्रयास किए और अपना राज्य पंजाब से बिहार तक विस्तारित किया। वे बहुत अच्छे प्रशासक और कलाओं तथा लिपि के संरक्षक थे। उनकी मृत्यु 1517 ए.डी. में हुई।
इब्राहिम खान लोदी (1489-1517 ए. डी.)
सिकंदर की मृत्यु के बाद उनके पुत्र इब्राहिम को गद्दी पर बिठाया गया। इब्राहिम लोदी एक सक्षम शासक सिद्ध नहीं हुए। वे राजाओं के साथ अधिक से अधिक सख्त होते गए। वे उनका अपमान करते थे और इस प्रकार इन अपमानों का बदला लेने के लिए दौलतखान लोदी, लाहौर के राज्यपाल और सुल्तान इब्राहिम लोदी के एक चाचा, अलाम खान ने काबुल के शासक, बाबर को भारत पर कब्ज़ा करने का आमंत्रण दिया। इब्राहिम लोदी को बाबर की सेना ने 1526 ए. डी. में पानीपत के युद्ध में मार गिराया। इस प्रकार दिल्ली की सल्तनत अंतत: समाप्त हो गई और भारत में मुगल शासन का मार्ग प्रशस्त हुआ।
बुहलुल खान लोदी (1451-1489 ए. डी.)
वे लोदी राजवंश के प्रथम राजा और संस्थापक थे। दिल्ली की सलतनत को उनकी पुरानी भव्यता में वापस लाने के लिए विचार से उन्होंने जौनपुर के शक्तिशाली राजवंश के साथ अनेक क्षेत्रों पर विजय पाई। बुहलुल खान ने ग्वालियर, जौनपुर और उत्तर प्रदेश में अपना क्षेत्र विस्तारित किया।
सिकंदर खान लोदी (1489-1517 ए. डी.)
बुहलुल खान की मृत्यु के बाद उनके दूसरे पुत्र निज़ाम शाह राजा घोषित किए गए और 1489 में उन्हें सुल्तान सिकंदर शाह का खिताब दिया गया। उन्होंने अपने राज्य को मजबूत बनाने के सभी प्रयास किए और अपना राज्य पंजाब से बिहार तक विस्तारित किया। वे बहुत अच्छे प्रशासक और कलाओं तथा लिपि के संरक्षक थे। उनकी मृत्यु 1517 ए.डी. में हुई।
इब्राहिम खान लोदी (1489-1517 ए. डी.)
सिकंदर की मृत्यु के बाद उनके पुत्र इब्राहिम को गद्दी पर बिठाया गया। इब्राहिम लोदी एक सक्षम शासक सिद्ध नहीं हुए। वे राजाओं के साथ अधिक से अधिक सख्त होते गए। वे उनका अपमान करते थे और इस प्रकार इन अपमानों का बदला लेने के लिए दौलतखान लोदी, लाहौर के राज्यपाल और सुल्तान इब्राहिम लोदी के एक चाचा, अलाम खान ने काबुल के शासक, बाबर को भारत पर कब्ज़ा करने का आमंत्रण दिया। इब्राहिम लोदी को बाबर की सेना ने 1526 ए. डी. में पानीपत के युद्ध में मार गिराया। इस प्रकार दिल्ली की सल्तनत अंतत: समाप्त हो गई और भारत में मुगल शासन का मार्ग प्रशस्त हुआ।
विजयनगर साम्राज्य
जब मुहम्मद तुगलक दक्षिण में अपनी शक्ति खो रहा था तब दो हिन्दु राजकुमार हरिहर और बूक्का ने कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच 1336 में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। जल्दी ही उन्होंने उत्तर दिशा में कृष्णा नदी तथा दक्षिण में कावेरी नदी के बीच इस पूरे क्षेत्र पर अपना राज्य स्थापित कर लिया। विजयनगर साम्राज्य की बढ़ती ताकत से इन कई शक्तियों के बीच टकराव हुआ और उन्होंने बहमनी साम्राज्य के साथ बार बार लड़ाइयां लड़ी।
विजयनगर साम्राज्य के सबसे प्रसिद्ध राजा कृष्ण देव राय थे। विजयनगर का राजवंश उनके कार्यकाल में भव्यता के शिखर पर पहुंच गया। वे उन सभी लड़ाइयों में सफल रहे जो उन्होंने लड़ी। उन्होंने ओडिशा के राजा को पराजित किया और विजयवाड़ा तथा राज महेन्द्री को जोड़ा।
कृष्ण देव राय ने पश्चिमी देशों के साथ व्यापार को प्रोत्साहन दिया। उनके पुर्तगालियों के साथ अच्छे संबंध थे, जिनका व्यापार उन दिनों भारत के पश्चिमी तट पर व्यापारिक केन्द्रों के रूप में स्थापित हो चुका था। वे न केवल एक महान योद्धा थे बल्कि वे कला के पारखी और अधिगम्यता के महान संरक्षक रहे। उनके कार्यकाल में तेलगु साहित्य काफी फला फुला। उनके तथा उनके उत्तरवर्तियों द्वारा चित्रकला, शिल्पकला, नृत्य और संगीत को काफी बढ़ावा दिया गया। उन्होंने अपने व्यक्तिगत आकर्षण, दयालुता और आदर्श प्रशासन द्वारा लोगों को प्रश्रय दिया।
विजयनगर साम्राज्य का पतन 1529 में कृष्ण देव राय की मृत्यु के साथ शुरू हुआ। यह साम्राज्य 1565 में पूरी तरह समाप्त हो गया जब आदिलशाही, निजामशाही, कुतुब शाही और बरीद शाही के संयुक्त प्रयासों द्वारा तालीकोटा में रामराय को पराजित किया गया। इसके बाद यह साम्राज्य छोटे छोटे राज्यों में टूट गया।
जब मुहम्मद तुगलक दक्षिण में अपनी शक्ति खो रहा था तब दो हिन्दु राजकुमार हरिहर और बूक्का ने कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच 1336 में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। जल्दी ही उन्होंने उत्तर दिशा में कृष्णा नदी तथा दक्षिण में कावेरी नदी के बीच इस पूरे क्षेत्र पर अपना राज्य स्थापित कर लिया। विजयनगर साम्राज्य की बढ़ती ताकत से इन कई शक्तियों के बीच टकराव हुआ और उन्होंने बहमनी साम्राज्य के साथ बार बार लड़ाइयां लड़ी।
विजयनगर साम्राज्य के सबसे प्रसिद्ध राजा कृष्ण देव राय थे। विजयनगर का राजवंश उनके कार्यकाल में भव्यता के शिखर पर पहुंच गया। वे उन सभी लड़ाइयों में सफल रहे जो उन्होंने लड़ी। उन्होंने ओडिशा के राजा को पराजित किया और विजयवाड़ा तथा राज महेन्द्री को जोड़ा।
कृष्ण देव राय ने पश्चिमी देशों के साथ व्यापार को प्रोत्साहन दिया। उनके पुर्तगालियों के साथ अच्छे संबंध थे, जिनका व्यापार उन दिनों भारत के पश्चिमी तट पर व्यापारिक केन्द्रों के रूप में स्थापित हो चुका था। वे न केवल एक महान योद्धा थे बल्कि वे कला के पारखी और अधिगम्यता के महान संरक्षक रहे। उनके कार्यकाल में तेलगु साहित्य काफी फला फुला। उनके तथा उनके उत्तरवर्तियों द्वारा चित्रकला, शिल्पकला, नृत्य और संगीत को काफी बढ़ावा दिया गया। उन्होंने अपने व्यक्तिगत आकर्षण, दयालुता और आदर्श प्रशासन द्वारा लोगों को प्रश्रय दिया।
विजयनगर साम्राज्य का पतन 1529 में कृष्ण देव राय की मृत्यु के साथ शुरू हुआ। यह साम्राज्य 1565 में पूरी तरह समाप्त हो गया जब आदिलशाही, निजामशाही, कुतुब शाही और बरीद शाही के संयुक्त प्रयासों द्वारा तालीकोटा में रामराय को पराजित किया गया। इसके बाद यह साम्राज्य छोटे छोटे राज्यों में टूट गया।
बहमनी राज्य
बहमनी का मुस्लिम राज्य दक्षिण के महान व्यक्तियों द्वारा स्थापित किया गया, जिन्होंने सुल्तान मुहम्मद तुगलक की दमनकारी नीतियों के विरुद्ध बकावत की। वर्ष 1347 में हसन अब्दुल मुजफ्फर अल उद्दीन बहमन शाह के नाम से राजा बना और उसने बहमनी राजवंश की स्थापना की। यह राजवंश लगभग 175 वर्ष तक चला और इसमें 18 शासक हुए। अपनी भव्यता की ऊंचाई पर बहमनी राज्य उत्तर में कृष्णा सें लेकर नर्मदा तक विस्तारित हुआ और बंगाल की खाड़ी के तट से लेकर पूर्व - पश्चिम दिशा में अरब सागर तक फैला। बहमनी के शासक कभी कभार पड़ोसी हिन्दू राज्य विजयनगर से युद्ध करते थे।
बहमनी राज्य के सर्वाधिक विशिष्ट व्यक्तित्व महमूद गवन थे, जो दो दशक से अधिक समय के लिए अमीर उल अलमारा के प्रधान राज्यमंत्री रहे। उन्होंने कई लड़ाइयां लड़ी, अनेक राजाओं को पराजित किया तथा कई क्षेत्रों को बहमनी राज्य में जोड़ा। राज्य के अंदर उन्होंने प्रशासन में सुधार किया, वित्तीय व्यवस्था को संगठित किया, जनशिक्षा को प्रोत्साहन दिया, राजस्व प्रणाली में सुधार किया, सेना को अनुशासित किया एवं भ्रष्टाचार को समाप्त कर दिया। चरित और ईमानदारी के धनी उन्होंने अपनी उच्च प्रतिष्ठा को विशिष्ट व्यक्तियों के दक्षिणी समूह से ऊंचा बनाए रखा, विशेष रूप से निज़ाम उल मुल, और उनकी प्रणाली से उनका निष्पादन हुआ। इसके साथ बहमनी साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया जो उसके अंतिम राजा कली मुल्लाह की मृत्यु से 1527 में समाप्त हो गया। इसके साथ बहमनी साम्राज्य पांच क्षेत्रीय स्वतंत्र भागों में टूट गया - अहमद नगर, बीजापुर, बरार, बिदार और गोलकोंडा।
बहमनी का मुस्लिम राज्य दक्षिण के महान व्यक्तियों द्वारा स्थापित किया गया, जिन्होंने सुल्तान मुहम्मद तुगलक की दमनकारी नीतियों के विरुद्ध बकावत की। वर्ष 1347 में हसन अब्दुल मुजफ्फर अल उद्दीन बहमन शाह के नाम से राजा बना और उसने बहमनी राजवंश की स्थापना की। यह राजवंश लगभग 175 वर्ष तक चला और इसमें 18 शासक हुए। अपनी भव्यता की ऊंचाई पर बहमनी राज्य उत्तर में कृष्णा सें लेकर नर्मदा तक विस्तारित हुआ और बंगाल की खाड़ी के तट से लेकर पूर्व - पश्चिम दिशा में अरब सागर तक फैला। बहमनी के शासक कभी कभार पड़ोसी हिन्दू राज्य विजयनगर से युद्ध करते थे।
बहमनी राज्य के सर्वाधिक विशिष्ट व्यक्तित्व महमूद गवन थे, जो दो दशक से अधिक समय के लिए अमीर उल अलमारा के प्रधान राज्यमंत्री रहे। उन्होंने कई लड़ाइयां लड़ी, अनेक राजाओं को पराजित किया तथा कई क्षेत्रों को बहमनी राज्य में जोड़ा। राज्य के अंदर उन्होंने प्रशासन में सुधार किया, वित्तीय व्यवस्था को संगठित किया, जनशिक्षा को प्रोत्साहन दिया, राजस्व प्रणाली में सुधार किया, सेना को अनुशासित किया एवं भ्रष्टाचार को समाप्त कर दिया। चरित और ईमानदारी के धनी उन्होंने अपनी उच्च प्रतिष्ठा को विशिष्ट व्यक्तियों के दक्षिणी समूह से ऊंचा बनाए रखा, विशेष रूप से निज़ाम उल मुल, और उनकी प्रणाली से उनका निष्पादन हुआ। इसके साथ बहमनी साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया जो उसके अंतिम राजा कली मुल्लाह की मृत्यु से 1527 में समाप्त हो गया। इसके साथ बहमनी साम्राज्य पांच क्षेत्रीय स्वतंत्र भागों में टूट गया - अहमद नगर, बीजापुर, बरार, बिदार और गोलकोंडा।